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कृषि बिल: क्या किसानों का हक़ मारने के लिए है ये बिल


 केंद्र सरकार की ओर से कृषि सुधार बिल कहे जा रहे तीन में से दो विधेयक रविवार को राज्यसभा में ध्वनि मत से पारित हो गए. अब इस पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अंतिम मुहर लगनी बाकी है जिसके बाद यह क़ानून बन जाएगा.

दो बिल जो संसद से पास हो चुके हैं उनमें से एक कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020, और दूसरा कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 है.

इन विधेयकों के ख़िलाफ़ हरियाणा-पंजाब के किसान कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं और इसको लेकर किसानों की अलग-अलग आशंकाएं हैं.

किसानों का मानना है कि यह विधेयक धीरे-धीरे एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) यानी आम भाषा में कहें तो मंडियों को ख़त्म कर देगा और फिर निजी कंपनियों को बढ़ावा देगा जिससे किसानों को उनकी फ़सल का उचित मूल्य नहीं मिलेगा.

निजी कंपनियां कैसे आएंगी?

आइये जानते हैं कि कैसे इन बिलों के कारण भविष्य में निजी कंपनियों की मनमानी को लेकर आशंकाएं खड़ी हो रही हैं.

पहला बिल कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 है जो एक ऐसा क़ानून होगा जिसके तहत किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी.

इसमें यह बात याद रखने वाली है कि सरकार का कहना है कि वह एपीएमसी मंडियां बंद नहीं कर रही है बल्कि किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था कर रही है जिसमें वह निजी ख़रीदार को अच्छे दामों में अपनी फ़सल बेच सके.

दूसरा बिल कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 है. यह क़ानून कृषि क़रारों पर राष्ट्रीय फ़्रेमवर्क के लिए है.

निजी कंपनियों के लिए एमएसपी?

अंबाला के एक किसान हरकेश सिंह कहते हैं कि सरकार ने जो भी क़ानून में कहा है वैसा तो पहले भी होता रहा है, कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग और अपनी फ़सलों को बाहर बेचने जैसी चीज़ें पहले भी होती रही हैं और यह बिल सिर्फ़ 'अंबानी-अडानी' जैसे व्यापारियों को लाभ देने के लिए लाया गया है.

वे कहते हैं, "किसान अब कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग करता है तो कोई विवाद होने पर वह सिर्फ़ एसडीएम के पास जा सकता है जबकि पहले वह कोर्ट जा सकता था. इस तरह की पाबंदी क्यों लगाई गई. इससे तो लगता है कि सरकार किसानों को बांध रही है और कॉर्पोरेट कंपनियों को खुला छोड़ रही है. उन्हें अब किसी फ़सल की ख़रीद के लिए कोई लाइसेंस की ज़रूरत नहीं है."

वहीं, किशान शक्ति संघ के अध्यक्ष और कृषि मामलों के जानकार चौधरी पुष्पेंद्र सिंह इन विधेयकों से बहुत ख़फ़ा नज़र नहीं आते हैं. वो कहते हैं कि इस क़ानून के बाद कोई भी कहीं भी और किसी को भी अपनी फ़सल बेच सकता है जो अच्छा है लेकिन इसमें एमएसपी की व्यवस्था कहां पर है?

वो कहते हैं, "मंडी के बाहर एमएसपी की व्यवस्था न होना ही सबसे बड़ा विवाद का बिंदु है. तीनों क़ानूनों से कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन इसमें मंडी के बराबर कोई दूसरी व्यवस्था बनाने का प्रावधान नहीं किया गया है. अगर कोई 'प्राइवेट प्लेयर' इस क्षेत्र में उतर रहा है तो उसके लिए भी एमएसपी की व्यवस्था होनी चाहिए. उदाहरण के रूप में अगर गेहूं के लिए 1925 रुपये प्रति क्विंटल की व्यवस्था मंडी के लिए की जाए तो वही व्यवस्था निजी कंपनियों के लिए भी होनी चाहिए."

भारतीय खाद्य निगम की कार्य कुशलता और वित्तीय प्रबंधन में सुधार के लिए बनाई गई शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ़ 6 फ़ीसदी किसान ही एमएसपी पर अपनी फ़सल बेच पाते हैं. इसमें भी हरियाणा और पंजाब के किसानों की बड़ी संख्या है जिस कारण अधिक प्रदर्शन भी इन्हीं दो राज्यों में हो रहे हैं.

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